रायपुर। आज के छत्तीसगढ़ और कल के अखण्ड मध्यप्रदेश की राजनीति में एक से एक वाकये हुए। इनमें सबसे रोचक कहानी है सारंगढ़ रियासत के राजा नरेश चंद्र की जो मध्यप्रदेश की सरकार में मंत्री रहे, फिर बागी होकर गठबंधन की सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने, मगर 13 दिनों के अंदर उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ी। आइये जानते हैं इसकी क्या वजह थी।

कांग्रेस को तोड़कर बनी थी गठबंधन की सरकार

वाकया 1967 का है, तब मध्यप्रदेश में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सरकार थी और द्वारिका प्रसाद मिश्रा मुख्यमंत्री थे। इसी दौरान विधायक गोविन्द नारायण सिंह ने द्वारका प्रसाद मिश्रा के खिलाफ विद्रोह कर दिया और उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया। पार्टी के अन्य कई विधायकों ने भी उनके साथ कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। गोविन्द नारायण ने “लोक सेवक दल” के नाम से एक नई राजनीतिक पार्टी बनाई और संयुक्त विधायक दल के नाम से जाने जाने वाले गठबंधन के नेता के रूप में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। इस दौरान उनकी पार्टी को जनक्रांति दल मोर्चा और जनसंघ का समर्थन मिला।

गठबंधन डगमगाया तब गोविंद ने वापसी की राह पकड़ी

मध्यप्रदेश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार की स्थिति डांवाडोल थी। 12 मार्च 1969 को गोविंद नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। तब 13 मार्च को मुख्यमंत्री बने नरेशचंद्र सिंह, पर उसके 13वें दिन यानि 25 मार्च को उन्हें पद छोड़ना पड़ा। पर यहां सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि नरेशचंद्र आखिर कांग्रेस छोड़ संयुक्त सरकार का हिस्सा बने क्यों? राजनीति में होने वाले षड्यंत्र का शिकार राजा नरेश चंद्र सिंह बने। इस मामले में दो तरह की जानकारी सामने आयीं।

क्या था राजमाता सिंधिया का ऑफर..?

इतिहास के पन्नों से पता चलता है कि नरेशचंद्र सिंह मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, सो जब गोविंद नारायण सिंह ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा दिया तभी नरेश ने कांग्रेस छोड़ने का ऐलान कर दिया। दरअसल उन्हें राजमाता सिंधिया की तरफ से न्योता था, कि जैसे गोविंद विधायक तोड़कर लाए, तुम भी लाओ और सीएम बन जाओ। जनक्रांति दल मोर्चा और जनसंघ का समर्थन तय है।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने नरेश चंद सिंह को विधायक तोड़कर लाने को कहा। नरेश चंद सिंह विधायक तोड़कर लाए और सीएम बन गए। वह आज के छत्तीसगढ़ में पड़ने वाली सारंगढ़ रियासत से थे और कांग्रेस में आदिवासियों के सबसे बड़े नेता थे। इसलिए संयुक्त गठबंधन को लगा कि सिंह के साथ आदिवासी विधायक भी जुट जाएंगे और सत्ता बची रहेगी।

गोविन्द गए तो समर्थक भी कांग्रेस में लौटे

हुआ यूं कि नरेश चंद्र सिंह के शपथ ग्रहण के कुछ रोज बाद गोविंद नारायण सिंह ने अपनी मूल पार्टी कांग्रेस में लौटने का ऐलान कर दिया। उनके साथ के दर्जनों विधायक भी नेता का अनुसरण करते हुए पार्टी में लौट गए। फिर क्या था नरेश चंद्र की सरकार अल्पमत में आ गई और उन्हें इस्तीफा देना पड़ गया।

इंदिरा ने नरेश को बगावत के लिए उकसाया..?

एक जानकारी ये भी सामने आई है कि नरेश चंद को कांग्रेस से बगावत के लिए उकसाने वाली खुद इंदिरा गांधी थीं। जानकर बताते हैं कि नरेशचंद्र को कांग्रेस से बगावत करने के लिए खुद इंदिरा गांधी ने कहा था। इस थ्योरी के मुताबिक गठबंधन की सरकार के सीएम गोविंद नारायण सिंह ने कांग्रेस में वापसी का मन बना लिया था, लेकिन उनको एक फेस सेवर की जरूरत थी। ये काम किया नरेश चंद्र ने, खुद को शहीद करके। वो गठबंधन में गए और गोविंद नारायण को मौका मिल गया कांग्रेस में वापस आने का। तब नरेशचंद्र को समझ आ गया कि उनका इस्तेमाल किया गया है।

दुखी होकर राजनीति से लिया सन्यास

राजनीति में उस वक्त काफी उथल-पुथल मची हुई थी, सो नरेशचंद्र सिंह राजनीति से संन्यास लेने का फैसला किया। अपने साथ हुई धोखाधड़ी के चलते नरेशचंद्र को सीएम की कुर्सी छोड़नी पड़ी। राजनीति के तौर-तरीकों से निराश होकर उन्होंने मुख्यमंत्री पद से ही नहीं राज्य विधानसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया और राजनीति छोड़ दी। अपने बाद के वर्षों में उन्होंने छत्तीसगढ़ में लोगों के उत्थान के लिए सामाजिक कार्य किया।

कौन थे राजा नरेश चंद्र सिंह..?

नरेशचंद्र सिंह की कहानी शुरू होती है छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ रियासत से। पिता जवाहीर सिंह रियासतदार थे। आजादी के डेढ़ बरस पहले जनवरी 1946 में जवाहीर चल बसे तो राजा बन गए नरेशचंद्र सिंह। फिर आया 1947, देश आजाद हो गया। 1 जनवरी 1948 को राजा नरेशचंद्र ने भी अपनी जनता को आजाद कर दिया और सारंगढ़ का भारतीय संघ में विलय कर दिया।

राजपाट छोड़ने के बाद ज्वाइन कर लिया कांग्रेस

राजा नरेश चंद्र ने सारंगढ़ का भारतीय संघ में विलय कराने के बाद खुद कांग्रेस जॉइन कर ली। 1952 में वे चुनाव लड़े और नेतृत्व अपनी जनता का ही किया, याने सारंगढ़ विधानसभा से विधायक बने, तब मध्यप्रदेश अस्तित्व में नहीं आया था। ये मध्य प्रांत था। यहां के मुख्यमंत्री बने पंडित रविशंकर शुक्ल। तब नरेश को कैबिनेट मंत्री बनाया गया, विभाग था बिजली और पीडब्ल्यूडी। 1954 में एक कमेटी बनी, काम था आदिवासियों के कल्याण के लिए अलग से विभाग बनाना। आदिवासी कल्याण विभाग, नरेशचंद्र 1955 में इस विभाग के मंत्री बने तो 1967 तक रहे, संयुक्त सरकार बनने तक। फिर इसके गिरने पर उन्हें मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला।

इंदिरा गांधी के चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को ठुकराया, मगर मान रखा…

राजनीति को अलविदा करने के 11 साल बाद नरेशचंद्र के सामने धर्मसंकट आया। साल था 1980 और उनसे संपर्क किया इंदिरा गांधी ने। इंदिरा ने खुद फोन कर नरेश सिंह को रायगढ़ से लोकसभा चुनाव लड़ने को कहा, मगर सिंह ने इनकार कर दिया, लेकिन मैडम का मान भी रखा और अपनी बेटी पुष्पा को चुनाव लड़वाया।

पत्नी और बेटियों ने राजनीति में रखा कदम

राजा नरेश ने सियासत छोड़ दी, मगर उनका परिवार इसमें लगातार कायम रहा। 1969 में नरेश के इस्तीफे के चलते पुसौर विधानसभा खाली हुई। यहां उपचुनाव में उनकी पत्नी ललिता देवी निर्विरोध चुन ली गईं। नरेशचंद्र की पांच औलादों में से चार बेटियां थी। इनमें से तीन राजनीति में आईं। बड़ी बेटी कमला देवी 1971 से 1989 तक विधायक के साथ ही मंत्री रहीं। दूसरी, रजनीगंधा और तीसरी पुष्पा लोकसभा सदस्य रहीं। चौथी, मेनका समाजसेवा में हैं। नरेश के बेटे शिशिर बिंदु सिंह भी एक बार विधायक रहे। नरेश चंद्र ने सियासत की शुरुआत की थी, और बाद में उनकी बेटियों ने परंपरा को आगे बढ़ाया। नरेश चंद्र सिंह का 11 सितंबर 1987 को निधन हो गया।

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