नयी दिल्ली। उच्चतम न्यायालय ने कलकत्ता उच्च न्यायालय के उस फैसले को मंगलवार को रद्द कर दिया, जिसके तहत यौन उत्पीड़न के एक आरोपी को बरी कर दिया गया था और किशोरियों को “यौन इच्छाओं पर नियंत्रण” रखने की सलाह देते हुए “आपत्तिजनक” टिप्पणियां की गई थीं।
न्यायमूर्ति अभय एस ओका और न्यायमूर्ति उज्जल भुइयां की पीठ ने कहा कि उसने यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम के तहत दर्ज मामलों से निपटने के लिए प्राधिकारियों को कई दिशा-निर्देश जारी किए हैं।
पीठ की तरफ से फैसला सुनाने वाले न्यायमूर्ति ओका ने कहा कि अदालतों को फैसला किस तरह से लिखना चाहिए, इस संबंध में भी दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं।
शीर्ष अदालत ने पिछले साल आठ दिसंबर को कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले की कड़ी आलोचना की थी। उसमें फैसले में की गई कुछ टिप्पणियों को “बेहद आपत्तिजनक और पूरी तरह से अनुचित” करार दिया था।
सर्वोच्च अदालत ने उच्च न्यायालय की खंडपीठ की ओर से की गई कुछ टिप्पणियों का स्वत: संज्ञान लिया था और उस पर रिट याचिका के रूप में शुरू की थी। उसने कहा था कि फैसला लिखते समय न्यायाधीशों से “उपदेश” देने की उम्मीद नहीं की जाती है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने भी उच्च न्यायालय के 18 अक्टूबर 2023 के इस विवादित फैसले को चुनौती दी थी।
उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि किशोरियों को “यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए”, क्योंकि “जब वह मुश्किल से दो मिनट का यौन सुख लेने के फेर में पड़ जाती है”, तब वह “समाज की नजरों में बुरी बन जाती है।”
उच्च न्यायालय ने एक व्यक्ति की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की थी, जिसे यौन उत्पीड़न के मामले में 20 साल की सजा सुनाई गई थी। उसने इस व्यक्ति को बरी कर दिया था।
चार जनवरी को मामले में सुनवाई करते हुए शीर्ष अदालत ने कहा था कि उच्च न्यायालय के फैसले में कुछ पैराग्राफ “आपत्तिजनक” हैं और इस तरह का फैसला लिखना “बिल्कुल गलत” था।
पिछले साल आठ दिसंबर को पारित अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने उच्च न्यायालय की कुछ टिप्पणियों का जिक्र किया और कहा, “प्रथम दृष्टया, उक्त टिप्पणियां पूरी तरह से भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत किशोरों को गारंटीकृत अधिकारों का उल्लंघन हैं।”
सर्वोच्च अदालत ने कहा था कि उच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा 19/20 सितंबर, 2022 के आदेश और फैसले की वैधता से संबंधित था, जिसके तहत एक व्यक्ति को भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 363 (अपहरण) और 366 (अपहरण, महिला को शादी के लिए मजबूर करने के लिए अगवा करना) के अलावा पॉक्सो अधिनियम की धारा छह के तहत दोषी ठहराया गया था।
उच्च न्यायालय ने दोषी को आरोप मुक्त करते हुए अपने फैसले में कहा था कि यह शोषण की प्रवृत्ति से इतर दो लोगों के बीच सहमति से यौन संबंध बनाए जाने का मामला था, हालांकि पीड़िता की उम्र को देखते हुए सहमति महत्वहीन है।
उच्च न्यायालय ने कहा था कि यह प्रत्येक किशोरी का कर्तव्य/दायित्व है कि वह “अपने शरीर की अखंडता के अधिकार की रक्षा करे; अपनी गरिमा और आत्म-सम्मान की रक्षा करे; लैंगिक बाधाओं को पार करते हुए खुद के समग्र विकास के लिए प्रयास करे; अपने शरीर की स्वायत्तता और अपनी निजता के अधिकार की रक्षा करे; यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखे, क्योंकि जब वह मुश्किल से दो मिनट का यौन सुख पाने के फेर में पड़ जाती है, तब वह समाज की नजरों में बुरी बन जाती है।”