बिलासपुर। अंबिकापुर के एक निजी विद्यालय में पढ़ रही छात्रा की आत्महत्या के मामले में अपने खिलाफ दर्ज FIR के खिलाफ दायर टीचर की याचिका को हाई कोर्ट ने खारिज कर दिया है। इस मामले में फैसला सुनाते हुए चीफ जस्टिस रमेश सिन्हा और जस्टिस रवींद्र कुमार अग्रवाल की बेंच ने कहा कि स्कूलों में बच्चों पर शारीरिक दंड लगाना भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत जीवन के अधिकार के अनुरूप नहीं है। उन्होंने कहा कि संवैधानिक अधिकार बच्चे को उपलब्ध हैं और उसे सिर्फ इसलिए इनसे वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि वह छोटा है। छोटा होना उसे वयस्क से कमतर नहीं बनाता। शारीरिक दंड बच्चे की गरिमा के अनुरूप नहीं है।

क्या है मामला..?

अंबिकापुर के कार्मेल कॉन्वेंट स्कूल में नियमित शिक्षिका के पद पर कार्यरत सिस्टर मर्सी उर्फ एलिजाबेथ जोस के खिलाफ अंबिकापुर के मणिपुर थाने में शिकायत दर्ज करवाई गई थी। इसमें 6वीं की छात्रा को खुदकुशी के लिए उकसाने का आरोप शिक्षिका पर लगाया गया था। पुलिस ने शिकायत पर आईपीसी की धारा 305 के तहत FIR दर्ज की थी और विवेचना के बाद कोर्ट में चार्जशीट पेश की। आरोपी शिक्षिका ने हाई कोर्ट में याचिका लगाई थी, जिसमें खुद के खिलाफ प्रस्तुत चार्जशीट को निरस्त करने की मांग की थी।

कोर्ट ने सरकार को दिए ये निर्देश

इस मामले की सुनवाई के बाद सीजे सिन्हा की बेंच ने कहा कि शारीरिक दंड से बच्चे के शरीर के साथ उसके दिमाग पर भी असर पड़ता है। यह उसकी गरिमा को छीन लेता है। हिंसा का कोई भी कार्य जो बच्चे को आघात पहुंचाता है, आतंकित करता है या उसकी क्षमताओं पर विपरीत असर डालता है, वह भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत आता है। सरकार का यह दायित्व है कि वह बच्चे को सभी प्रकार की शारीरिक या मानसिक हिंसा, चोट, दुर्व्यवहार यातना, अमानवीय या अपमानजनक व्यवहार, यौन शोषण से सुरक्षित करने के लिए विधायी, प्रशासनिक, सामाजिक और शैक्षिक उपाय करे।

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